Saturday, February 16, 2013

तरक्की

मिट्टी जिसमें कभी थे लिपटे,
आज हो गई है मैली;
हो गए सब गलतियों के परे,
सयाने हो गए हैं सब।

Bat-ball जो खेला करते,
गलती करते, फिर सम्भलते;
छिले घुटने, रूखे केश,
बीते कल के बचे-कुचे अवशेष।

होली का मदमस्त हड़कंप,
गाली देते पक्के यार;
वो रात-रात का गुम हो जाना,
वो छुप-छुप के पहला प्यार।

कड़ाकेचूर दिल्ली की सर्दी,
ठिठुरते बदन पे रजाई की सेंक;
सुबह से पहले झट-पट जगना,
Bus के छूटने का रोमांच।

Bus के हिचकोलों के संग,
नींद का आखिरी पल तक आभास;
स्कूल दूर से आते देख,
मन का स्वयं ही बुझ-सा जाना।

सत्रह-अठारह के पहाड़े रटना,
साथ-साथ साईं का जाप;
पार लगे अपनी ये नैय्या,
मन में हो बस यही अलाप।

आज कहाँ कोई है निर्भर,
किसी और के साथ को;
पाठ पढ़ लिए, चपत पड़ चुके 
अब काहे का बचपन मोह।

लोगबाग सब बदल गए हैं,
या शायद हूँ बदला मैं;
चलो, रुको मत, आगे बढ़ो,
खूब बनो सयाने सब।

2 comments:

perryizgr8 said...

I think it's brilliant.

Rohit said...

वाह, बहुत बढ़िया लिखा है। अच्छी कविता लिखते हो। किशोरावस्था से यौवन में प्रवेश का रोमांच और अनजान राहों पर निकल पड़ने का उत्साह! वाह, फिर से 'बहुत बढ़िया।'