अभी सूर्या पतन से दूर है,
दिन का ढलना बाकी है...
पैर के तलवे फिलहाल मुलायम हैं,
पर भी हैं फूटे नहीं, आँखे भी सिंची नहीं,
प्यार तो किया है, पर दिल को ठेस मिलनी बाकी है...
इरादों के जहाँ में तो कब से सजी हैं झाँकियाँ,
कल्पना के बागान में खिली हैं फूलों की क्यारियाँ।
सोचा तो है गगन चूम के आना है,
शुरुआत अभी बाकी है...
मन का आंगन है अगन से झुलसा,
मांगे दर दर प्रेरणा की वर्षा,
सेंक लिया है बदन धूप में,
हाथ जलना अभी बाकी है...
है शायद ये यौवन का तकाज़ा,
कि तन विह्वल करे तमाशा,
उम्मीद बाँध तो बहुत रखी हैं,
साकार होना बाकी है...
या शायद है मानव प्रवृत्ति,
दुनिया देखे सदा अघटित कल की,
सत्य तो सत्य, हो चुका, या रहा है,
अनिश्चित कल आना बाकी है।
माँ, निकल पड़ने दो पिंजरे से,
ताकती रहना आसमां दूर के,
सांझ ज़रूर है क्षितिज पे छायी,
पर रात अभी बाकी है…
5 comments:
A nice poem. The poet expresses his deep mind and desires. The poem, written by a young boy, has tremendous meanings. I respect his wishes and desires.I will read it again & again.
This one's really good, Bharat :)
Lots of emotions, lots of energy, lots of enthusiasm. It is very inspiring poem. Maybe at technical level it needs little refinement but raw as it is, it is very lovely. It betrays deep felt yearning of a youth that is worthy of worship. I love the poem.
thanks a lot everyone! :)
It is a poem in the real sense as it has the aspirations, expectations and aprihensions of a youth. The diction and the expressions are strikingly fresh and effective. The poet deserves all praise.
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