Monday, October 29, 2012

यूं ही कुछ, मन की उथल-पुथल...


लगता था जो गगन असीमित, 
था वो बस कुछ कोस ही गहरा;
कसमें जो थी स्वयं से बढ़कर,
टिकी नहीं वो एक भी पल-भर.

रिश्ते जो थे दिल में संजोए,
बिखर गए सब एक-एक कर,
सपने स्वर्णिम जो देखे थे,
चले गए ना जाने किधर.

वो बचपन की छुपान-छुपाई,
वो बाल-मन की संरचनाएँ;
वो पापा की मूछ पे ताव,
वो माँ की आँचल की छाँव.

वो सर्दी की धूप, मोहिनी,
वो बारिश की तेज़ फुहार;
वो जीवन की चादर झीनी,
करवट लेती समय की धार.

बदल रहा संसार हमारा,
बदल रहीं महत्त्वाकांक्षाएँ;
अगन लगी है जिसको देखो,
भागा-फिरता नज़रें चुराए.

भारी दिल का विह्वल गान,
मरणासन्न का आखिरी ऐलान,
"करे चलो तुम आज से दिल्लगी,
स्वयं बनो अपने  भगवान्."

-Bm.

2 comments:

Rohit said...

मुझे यह कविता मधुर व प्यारी लगी।

Bharat said...

Thank u papa!