[I don't want much of a foreword for this, its just an impulsive piece without any pre-planning whatsoever. Just the night and me and a pen and a paper.]
काली इस रात की कालिख जैसा,
धुंआ उड़ाता जाता हूँ|
या है ये किसी आईने जैसा,
खुद में ही जो मैं झांकता हूँ||
ये निशा का जादू सर चढ़ता,
मैं झूम-झूम आवारा हूँ|
जो सुबह सुनहरा सपना था,
इस अंधियारे में समा गया||
हूँ मैं, बस मैं, सब बिछड़ गए,
सारा जग-जग है सोया|
सब छोड़-छाड़, विधियाँ-विधान,
मैं आशिक अंधियारे का||
ना मधुशाला, ना प्रेम किया,
है नहीं कोई अब साथी|
इकलौता मैं, इकलौता पथ,
दोनों की मंजिल अनजानी||
टिकती यहाँ है दुनियादारी,
है लगन यहाँ एक बीमारी|
जो एक बार दिल की करे,
बन जाता है वो भिखारी||
इस रात में, बस अंधाधुंध,
कुछ खुद से ही गुनगुनाता हूँ|
दुनिया चले या दुनिया थमे,
बस धुंआ उड़ाता जाता हूँ...
3 comments:
I am impressed by the intensity of emotions- the poem aligns to "Chhaya Vaadi" tradition. I am again impressed by the intensity of loneliness felt by the poet. There is something like Nirala (it might be too much to compare like this, yet!!!)- the words struggle to keep up with the flood of thoughts and emotions. I think (like an engineer), 'keep on writing' will produce much smoother flow. It feels as if the river is flowing through a bed strewn with rocks and boulders. I would have loved a flow of the Ganga in Hardwar- cool, deep, great force and like an arrow shot.
निद्रविहीन निशाचर लोचन ……………
रोहित ने बहुत सही है……… निःसंदेह अभिव्यक्ति
निद्रविहीन निशाचर लोचन ……………
रोहित ने बहुत सही है……… निःसंदेह प्रभावी अभिव्यक्ति
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